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सु॒वीर्यं॒ स्वश्व्यं॑ सु॒गव्य॑मिन्द्र दद्धि नः । होते॑व पू॒र्वचि॑त्तये॒ प्राध्व॒रे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

suvīryaṁ svaśvyaṁ sugavyam indra daddhi naḥ | hoteva pūrvacittaye prādhvare ||

पद पाठ

सु॒ऽवीर्य॑म् । सु॒ऽअश्व्य॑म् । सु॒ऽगव्य॑म् । इ॒न्द्र॒ । द॒द्धि॒ । नः॒ । होता॑ऽइव । पू॒र्वऽचि॑त्तये । प्र । अ॒ध्व॒रे ॥ ८.१२.३३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:12» मन्त्र:33 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:6» मन्त्र:8 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:33


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शिव शंकर शर्मा

फिर भी उसी विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! (पूर्वचित्तये) पूर्ण विज्ञानप्राप्ति के लिये अथवा सबसे पहले ही जनाने के लिये (होता+इव) ऋत्विक् के समान (अध्वरे) यज्ञ में तेरी (प्र) प्रार्थना करता हूँ। तू (नः) हम लोगों को (सुवीर्य्यम्) सुवीर्य्योपेत (स्वश्व्यम्) अच्छे-२ घोड़ों से युक्त (सुगव्यम्) मनोहर गवादि पशु समेत धन को (दद्धि) दे ॥३३॥
भावार्थभाषाः - उसी की कृपा से अश्वादिक पशु भी प्राप्त होते हैं ॥३३॥
टिप्पणी: यह अष्टम मण्डल का बारहवाँ सूक्त और छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (नः) आप हमारे लिये (सुवीर्यम्) सुन्दर वीर्यवाले (स्वश्व्यम्) सुन्दर अश्ववाले (सुगव्यम्) सुन्दर गोवाले धन को (दद्धि) दें (प्राध्वरे) संसाररूप महायज्ञ में (होतेव) यज्ञकर्त्ता के समान (पूर्वचित्तये) पूर्वज्ञानप्राप्त करने के लिये आप हैं ॥३३॥
भावार्थभाषाः - हे प्रभो ! यज्ञकर्त्ता के समान ज्ञान प्राप्त करानेवाले गुरु तथा आचार्य्य आप ही हैं। कृपा करके हमको ज्ञान की प्राप्ति कराएँ, जिससे हम लोग नित्यप्रति यज्ञों द्वारा आपकी उपासना में प्रवृत्त रहें। हे ऐश्वर्य्यसम्पन्न भगवन् ! हमें गौ आदि उत्तमोत्तम धनों को दीजिये, जिससे हम ऐश्वर्य्यसम्पन्न होकर यज्ञ करते हुए स्वाधीनता से जीवन व्यतीत करें ॥३३ यह बारहवाँ सूक्त और छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तमर्थमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! पूर्वचित्तये=पूर्णविज्ञानाय। यद्वा। सर्वेभ्यः पूर्वमेव प्रज्ञापनाय। होता इव। यद्यपि यज्ञं नाहं जानामि तथापि ऋत्विगिव। अध्वरे=यागे। त्वाम्। प्र=प्रार्थये। त्वं खलु। नोऽस्मभ्यम्। सुवीर्य्यम्=सुवीर्य्योपेतम्। स्वश्व्यम्। धनं दद्धि=देहि ॥३३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (नः) अस्मभ्यम् (सुवीर्यम्) सुवीर्यवत् (स्वश्व्यम्) स्वश्ववत् (सुगव्यम्) शोभनगोवत् (दद्धि) धनं देहि (प्राध्वरे) महायज्ञे (होतेव) यज्ञकर्तेव (पूर्वचित्तये) पूर्वज्ञानाय त्वमसि ॥३३॥ इति द्वादशं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥